- This topic has 0 replies, 1 voice, and was last updated by .
-
AuthorPosts
-
March 23, 2024 at 1:35 pm #1931Up::2
चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर वाणी
बीस कोस पर पगड़ी बदले, तीस कोस पर धानी
महाकवि भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्बारा कहीं उपरोक्त पंक्तियाँ भारत की विविधता को प्रदर्शित करतीं हैं, साथ ही भारत की अनेकता में एकता को भी सुपरिभाषित करतीं हैं।
भारत देश के बारे में कहा जाता है कि यहाँ हर दिन और हर पहर देश के किसी ना किसी हिस्से में कोई उत्सव, कोई त्यौहार मनाया जाता है। भारत त्यौहारों का देश है, विविधताओं का देश है,अनेकता में एकता का देश है।
भारत में अनुमानतः 122 भाषाएँ और करीब 1600 बोलियाँ बोली जाती है। हर भाषा का अपना अलग व्याकरण और शब्दावली है और क्षेत्र विशेष में बोली जाती है।
धर्म का शाब्दिक अर्थ धारण करने से हैं। अर्थात जिन भी विचारों,विचारधाराओं और मान्यताओं के हिसाब से हम अपना जीवन निर्वहन करते हैं।
भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी धर्म आदि को मानने वाले लोग मुख्यतः रहते हैं।
‘जाति’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘जनि’ धातु में ‘क्तिन्’ प्रत्यय के जोड़ से हुई है। जाति समान जन्म वाले लोगों को मिलाकर
बनतीं है। भारत में लगभग 3000 जातियाँ और 25000 उपजातियाँ भी पायीं जाती है।
हर जाति और उपजाति समान धर्म के अन्तर्गत आती हुईं भी दूसरे से कुछ न कुछ प्रकार से अलग है। एक होतें हुए भी वो अनेक है
प्रश्न उठता है कि आखिर आज मौजूदा जाति व्यवस्था की शुरुआत कब, कैसे और क्यों हुईं।
जब हम इतिहास की तरफ एक सरसरी नजर से देखते हैं तो हमें दो तीन मुख्य कारण नजर आते है लेकिन जब हम गहराई से इतिहास का अध्ययन करते हैं तो हमें बहुत सारे कारण देखने को मिलते हैं और हर कारण दूसरे कारण का विरोधाभासी प्रतीत होता है।
पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति लगभग 2.5 लाख साल पहले की मानी जाती है। अभी तक मिले प्रमाणों के आधार पर मानव का पहला प्रमाण अफ्रीका महाद्वीप में मिलता है। अभी तक हुईं खोजों से संकेत मिलता है कि मानव पहले बंदर थे। और आनुवंशिक विभाजन के बाद उनसे अलग हुए।
भारतीय समाज में चार वर्ण है। वर्णों का पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है अर्थात 1500 ईसा पूर्व वैदिक काल में वर्ण थे। वर्ण का मतलब रंग यानी श्वेत, श्याम या गेंहूआ या सलोने से है।
वर्ण व्यवस्था प्रारंभ में इतनी कठोर नहीं थी, लेकिन शक्तिशाली पदों पर बैठे लोगों की महत्वाकांक्षाओं ने इसे कठोर बना दिया और कौशल से मिलने वाला पद आनुवंशिक होते चले गए।
चार वर्ग है और सोपान व्यवस्था पर आधारित है। सबसे पहले ब्राह्मण या पुजारी है जिनका कार्य पूजा पाठ करना, शिक्षा देना आदि है।
फिर क्षत्रिय या राजपूत है जो भूमि के राजा होते हैं, नगर पर शासन करते हैं, अपने क्षेत्र के नागरिकों की दूसरे राजाओं के हमलों से रक्षा करते हैं, और ब्राह्मणों और पुरोहितों की सलाह पर प्रबंधन का कार्य करते हैं। कुछ इतिहासकारों ने इनकी उत्पत्ति अग्नि कुंड से बताई है।
वैश्य, बनिया या व्यापारी सोपान व्यवस्था में तृतीय स्थान पर आते हैं। इनका काम व्यापार संभालना, वस्तुओं का आयात निर्यात करना, क्रय विक्रय करना और आम जनता तक रोजमर्रा की वस्तुओं को उपलब्ध कराना है। कभी कभी किसानों को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है।
सोपान व्यवस्था में यह अंतिम पायदान पर शूद्र आते हैं। इन्हें सबसे नीचा माना जाता है। इन्हें बाकी तीन वर्णों का सहायक माना जाता है।
कुछ जगह इन चारों के अलावा दलित और अछूतों का भी उल्लेख मिलता है। इन्हें सामाजिक व्यवस्था से पूरी तरह अलग रखा जाता है। माना जाता है कि कि अगर इनसे स्पर्श भी हो गयें तो उच्च जाति के लोग अशुद्ध हो जातें हैं।
प्रारंभिक वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल से प्रारंभिक मध्ययुगीन काल, मध्ययुगीन काल से, इस्लामी सल्तनत और मुगल साम्राज्य काल से ब्रिटिश शासन तक बदलते सामाजिक परिवेश में इस जाति व्यवस्था में भी बहुत परिवर्तन आया है।
इस दौरान भारत में इस्लाम, पारसी और ईसाई धर्म का आगमों हुआ। जैन, बौद्ध और सिख धर्म का उद्भव हुआ। भारत ने बहुत सारे विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण झेलें, कईयों राजाओं के शासन काल देखें। औपनिवेशिक शासन भी देखा। भक्तिकाल भी इसी दौरान घटित हुआ। इन सभी घटनाओं ने जाति व्यवस्था को खूब प्रभावित किया है।
आज 21 वीं सदी में भी हम अक्सर सुनते हैं कि उक्त जगह दलित दूल्हे की बारात नहीं निकालने दी गई, कहीं किसी को कुएँ से पानी नहीं लेने दिया गया। ऐसी सभी प्रकरणों के चलते सरकार ने दलित और पिछड़ों के लिए कानून बनाये हैं। उन्हें तरह तरह के लाभ जैसे आरक्षण आदि मुहैया कराया है। उनके लिए विभिन्न योजनाओं का संचालन किया गया है। लेकिन इस सबने राजनीति में जाति के हस्तक्षेप को भी बढावा दिया है।
असल में देखें तो ज्यादातर स्रोत यही बतलाते है कि असल में आज जो जाति व्यवस्था व्यापत है। असल में उसे शुरू करने का उद्देश्य कुछ और था। लेकिन कुछ अतिमहत्वाकांक्षी लोगों ने उसे उसके सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से भटका दिया।
बदलते सामाजिक परिवेश में जाति व्यवस्था में काफी सकारात्मक बदलाव हुए हैं। लेकिन अभी बहुत काम बाकी है।
-
AuthorPosts
- You must be logged in to reply to this topic.