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अहिंसा सनातन धर्म का एक अहम गुण है। न सिर्फ सनातन धर्म बल्कि जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी अहिंसा और सत्य का पालन करने पर बल दिया गया है। न सिर्फ मनुष्यों में आपस में, बल्कि संसार में विद्यमान प्रत्येक सजीव वस्तु जैसे पेड़ पौधों, जीव जन्तुओं, वनस्पति किसी को भी चोट या नुकसान पहुंचाने का विरोध सनातन धर्म में किया गया है।
ऐसा विश्वास है कि संसार के कण कण में ईश्वर का वास है।हर एक सजीव प्राणी में भी ईश्वर का वास है। आत्मा सिर्फ शरीर बदलतीं है। हर जीव की आत्मा दूसरी आत्मा से संबंधित है और ये सभी आत्मा परमात्मा से संबंधित है।
सनातन धर्म के ग्रन्थों, पुराणों और महाकाव्यों में इस बात का उल्लेख है कि गंभीर से गंभीर मामलों में भी बातचीत और संधि की कोशिशें की जानी चाहिए। क्योंकि जब युद्ध और हिंसा होती है तो पक्ष कोई सा सही या गलत हो, जनहानि दोनों की होती है। कितनी महिलाएँ और बच्चे अपने पति, पिता और पुत्र को खो देते हैं और अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं। बल के प्रयोग को अंतिम विकल्प बताया गया है।
लेकिन जब मौजूदा इतिहास की तरफ देखते हैं तो यह युद्ध और हिंसा से भरा मिलता है। युग चाहे जो भी हो, समय और परिस्थितियाँ जो भी रहीं हो, लेकिन हिंसा तो हुईं हैं। हर सिक्के के दो पहलू होतें हैं। अगर संसार में अच्छाई और सगुण आत्माएं मौजूद है तो बुराई दुर्गुण आत्माएँ भी मौजूद है। वो सत्ता और शक्ति के लालच में, अपने अहम की पूर्ति के लिए हिंसा को ही पहला और अंतिम विकल्प मानते हैं। ऐसी वृत्ति के लोग अधर्म और युद्ध के परिणामों की परवाह नहीं करते हैं।
जब जब धरती पर पाप बढे, भगवान् ने किसी न किसी रूप में धर्म और अहिंसा बनाये रखने की कोशिश की। उन्होंने मनुष्य रूप में अवतार भी लिये। लेकिन जब बात आत्मरक्षा की आतीं हैं तो ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य को भी उचित जबाब देने की बात कही गई है। स्वयं धर्म शास्त्र कहते है कि पाप करने से ज्यादा सहना पाप है।