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April 7, 2024 at 11:05 pm #2015Up::1
महाकाव्य रामायण के शुरूआत में एक वृतांत है कि ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास आकर बताते हैं कि जंगल में राक्षसी ताड़का ने हाहाकार मचा रखा है। वो ऋषि मुनियों द्धारा किये जा रहे यज्ञादि में बाधा डाल रही है। यह यज्ञ देवताओं को शक्ति प्रदान करते हैं। देवता जो बिना किसी भेदभाव के सभी के कल्याण के लिए कार्य करते हैं। राजा दशरथ अपने दोनों पुत्रों राम और लक्ष्मण को ऋषि के साथ भेज देते हैं। वहाँ भगवान् श्रीराम राक्षसी को हिंसा न करने का आग्रह करते हैं। लेकिन जब वो नहीं मानती है तो उसका वध अनिवार्य हो जाता है। लोक कल्याण के लिए उसके वध को गलत नहीं माना जा सकता।
वनवास के समय शूपर्णखा जब श्रीराम के लाख मना करने के बावजूद हठ करती है तब उसे सबक सिखाना जरुरी हो जाता है ताकि आगे वो ऐसा न करें। इसलिए लक्ष्मण उसकी नाक काट देते हैं। यहाँ लक्ष्मण का शूपर्णखा की नाक काटना शास्त्र सम्मत नहीं है, लेकिन उसका कृत्य इसे सही ठहराता है
रावण जो कि तीनों लोकों को जीत चुका था। जब वह माता सीता का हरण एक साधू का वेश धारण कर ले जाता है तो वही से वो अपराधी की श्रेणी में आ जाता है। सीता मां जो कि एक पतिव्रता नारी है उनका बल पूर्वक हरण को सही नहीं ठहराया जा सकता।
राजा बालि जो कि वानरराज था ने भी अपनी शक्ति के नशे में चूर होकर जो भी अपने भाई और अन्य लोगों के साथ घोर अन्याय किया। उसे उसका दंड देना अत्यंत आवश्यक था।
लंका पर कूच करने के बाद भी प्रभु श्रीराम ने अंगद को अपना शांति दूत बनाकर भेजा, जिसमें सिर्फ यह कहा गया कि अगर रावण ससम्मान माता सीता को उनके साथ भेज दें तो एक भयंकर युद्ध को टाला जा सकता है। लेकिन हठी रावण ऐसा न कर अंगद को ही बंदी बनाने की कोशिश करता है, जो कि धर्म के विरुद्ध है। पत्नी मंदोदरी सहित उसके हितैषी परिजन उसे लाख समझाते हैं कि श्रीराम कोई सामान्य मनुष्य न होकर स्वयं भगवान् श्री हरि के अवतार है। लेकिन अपनी शक्ति के नशे में चूर रावण किसी की ना सुन युद्ध का बिगुल बजा देता है। बहुत सारे लोगों का ऐसा मानना भी है कि रावण परिवार के पुरुषों कोत श्रीराम और उनके भ्राता के हाथों मरवाना चाहता था। क्योंकि भगवान् के हाथों मरना सौभाग्य है।इसलिए सभी बातों का भान होतें हुए भी वो युद्ध करता है। रावण के वध से संसार में पुनः धर्म की स्थापना होती है।
महाभारत में भी कुछ ऐसा ही हुआ है, लेकिन वहाँ युद्ध, छल कपट और हिंसा कुछ अधिक देखने को मिलती है। इसका एक बड़ा कारण हस्तिनापुर का राजसिंहासन भी है। जिसके ईर्दगिर्द संपूर्ण महाभारत होती है। असल में इस युद्ध का बीज उसी दिन बुब चुका था जब धृतराष्ट्र के स्थान पर पांडु को हस्तिनापुर का राजसिंहासन सौंप दिया जाता है। धृतराष्ट्र को लगता है कि उसके अंधत्व के कारण पराक्रमी होते हुए भी पांडु को राजा बनाया गया था।
परन्तु भीष्म और राजमाता सत्यवती जानते थे कि धृतराष्ट्र एक कुटिल और अधर्मी व्यक्ति हैं। इसी कारण उन्होंने धृतराष्ट्र की जगह धर्म का पालन करने वाले पांडु को राजा बनाया। धृतराष्ट्र के राजा न बनने को कुटिल शकुनि ने आग में घी डालने का काम किया। ऐसे अधर्मी कुटिल व्यक्ति से उसी जैसे उसके 100 पुत्रों का जन्म हुआ। अपने मामा की संगति का असर उन पर भी पड़ा।
जिससे वो अपने पिता और मामा से भी अधिक दुर्जन बन गयें।
उन्होंने अपनी युद्ध कुशलता और शास्त्रज्ञान का उपयोग कुकृत्यों में किया। उन्होंने बचपन से ही पांडु पुत्रों को हर तरह से परेशान किया।
जब हस्तिनापुर का विभाजन हुआ तो पांडवों द्बारा बसाये गए इंद्रप्रस्थ नगर की समृद्धि उनसे देखीं ना गयी। द्रौपदी के अन्धे का पुत्र अन्धा ने चिंगारी को आग बना दिया। कौरवों ने एक चौसर सभा का आयोजन किया जिसमें शकुनि के जादुई पासों के कारण पांडव अपना सब कुछ यहाँ तक खुद को और अपनी पत्नी को हार जाते हैं। दु:शासन द्रोपदी के बाल पकड़ कर उसे सभा में लाता है और उसके वस्त्र हरण करता है। पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, राजगुरु कृपाचार्य और अंगराग कर्ण ,अधर्म का अन्न खाकर विद्वान होकर भी दूषित बुद्धि के हो चुकें थे कुछ नहीं बोलें। इतना सब कुछ होने के बाद युद्ध के कारण स्पष्ट थे।
दुर्योधन, शकुनि और बाकी कौरव पांडवों के अज्ञातवास को भंग करने का हरसंभव प्रयास करते हैं। वो पांडवों को उनका राज्य लौटाने से मना कर देते हैं। जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध होता है। फिर भी युधिष्ठिर पांच भाइयों के लिए पांच गाँव ही मांगते है जिसके लिए कौरव मना कर देते हैं। शांति दूत बन कर गये श्रीकृष्ण को वो बंदी बनाने का प्रयास करते हैं जो धर्म के विरुद्ध है।
धर्म की पुनर्स्थापना के लिए एक ऐसा युद्ध छिड़ जाता है जिसमें भाई भाई के, पौत्र प्रपौत्र अपने पितामह के, मामा भांजे के , गुरु शिष्य के और बालक अपने काका के खिलाफ युद्ध लड़ रहे थे।
भीम ने 100 कौरवों का अपनीं प्रतिज्ञा बद्ध वध किया, जो उसके भाई थे। अर्जुन ने अपने गुरु, पितामह और भाई कर्ण का वध किया। भीम ने दु:शासन के खून से द्रौपदी के बाल धोये। इससे भीषण शायद ही कुछ हो।
महाभारत और रामायण के प्रसंगों से पता चलता है कि जो धर्म अहिंसा और सत्य का पालन करने की पाठ पढाता है। जब बात आत्मसम्मान और धर्म की आ जाये तो यही धर्म हमें साम दाम दंड भेद, छल ,कपट जैसी नीतियों का पालन करने की बात भी बताता है। लेकिन हिंसा हमेशा अंतिम से अंतिम विकल्प होना चाहिए। उससे पहले शांति के अधिकतम प्रयास करना नितान्त आवश्यक है।
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